नागों के बीच शिव
Nageshwar Jyotirlinga Katha एक ऐसी कथा है जो हमें शिव के उस रूप से जोड़ती है जो अंधकार और संकट के बीच भी अपने भक्त की रक्षा करते हैं। यह कथा केवल पौराणिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक रूप से जीवित सत्य है। गुजरात के द्वारका के समीप समुद्र के तट पर स्थित नागेश्वर ज्योतिर्लिंग के पीछे की जो कथा है, वह साहस, भक्ति, राक्षसी भय और ईश्वरीय करुणा से भरी हुई है।
बहुत समय पहले की बात है, समुद्र के किनारे एक क्षेत्र था जिसका नाम था “दर्शनवती”। यह स्थान प्राकृतिक रूप से समृद्ध था, पर वहाँ एक अत्यंत ही बलशाली राक्षस का आतंक फैला हुआ था। उसका नाम था “दारुक”। दारुक को अपनी शक्ति पर घमंड था। उसने वनवासियों, ऋषियों और साधकों को परेशान करना शुरू कर दिया। वह यज्ञों में विघ्न डालता, तपस्वियों की साधना तोड़ता और ब्राह्मणों पर अत्याचार करता।
दारुक के पास एक अति विशेष वरदान था, उसकी पत्नी नागिनी के तप से मिले एक शक्तिशाली नागलोक का अधिकार। इस नागलोक की सीमाएं समुद्र की गहराइयों से जुड़ी थीं। जब धरती पर उसका आतंक बढ़ गया, तो उसने अपने सारे अनुयायियों सहित समुद्र में ही एक नया नगर बसा लिया और वहीं से उसने अपना अत्याचार फैलाया। Bhakti Dhams बताएगा Nageshwar Jyotirlinga Katha के बारे में ।
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एक भक्त सुप्रिया की पुकार – ( Story of Nageshwar Jyotirlinga Katha )
दारुक राक्षस के अत्याचारों से परेशान संतों और साधुओं को कैद कर लिया गया था। उन्हीं में से एक थे शिव के अनन्य भक्त “सुप्रिया”, जो निरंतर “ॐ नमः शिवाय” का जाप करते रहते थे। बंदीगृह की कठिनाइयों ने उनके तप में कोई बाधा नहीं डाली। उन्होंने अन्न और जल का त्याग कर गहरी साधना आरंभ की। उनका अंतरमन केवल एक ही प्रार्थना से भर गया था “हे शिव! या तो मुझे इस पीड़ा से मुक्ति दो या मुझे अपने स्वरूप में समाहित कर लो।”
सुप्रिया की यह पुकार केवल शब्द नहीं थी, वह एक भक्त की अंतरात्मा से निकली वेदना थी, जिसे भोलेनाथ कभी भी अनदेखा नहीं करते। उनके हृदय से निकली आह ने शिव को आंदोलित कर दिया। महादेव ने तेजस्वी नागेश्वर रूप धारण किया और समुद्र की गहराइयों को चीरते हुए बंदीगृह में प्रकट हो गए।
शिव के उस रूप ने न केवल सुप्रिया को मुक्त किया, बल्कि सारे बंदियों को भी अत्याचार से उबार दिया। यह वही स्थान बना जहाँ शिव का “नागेश्वर ज्योतिर्लिंग” प्रतिष्ठित हुआ भक्त की पुकार पर उत्तर देने वाले शिव का अमर प्रतीक।
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शिव का प्रकट होना
एक अंधकारमय कारागार में, जब चारों ओर निराशा छाई थी, तब दिव्यता ने स्वयं को प्रकट किया। महादेव उस क्षण “Nageshwar Jyotirlinga” स्वरूप में प्रकट हुए उनका विशाल तेजस्वी शरीर सर्पों से आच्छादित था, ललाट पर प्रज्वलित त्रिनेत्र, और गले में वासुकि का आलिंगन। उनका आगमन होते ही वह स्थान दिव्य प्रकाश से आलोकित हो गया।
सुप्रिया की आँखों से आँसू बहने लगे यह भय के नहीं, अपितु उस ईश्वर के प्रत्यक्ष दर्शन के थे जिनका वह वर्षों से ध्यान करती आई थी। महादेव की करुणा दृष्टि मात्र से उसके बंधन टूट गए। जैसे ही भोलेनाथ ने त्रिशूल उठाया, बंदीगृह की दीवारें ध्वस्त हो गईं और समुद्र ने वहाँ मार्ग बना दिया। यह दृश्य केवल मुक्तिकारी नहीं, संहारक रूप का प्रतीक था।
दानव दारुक इस अद्भुत रूप को देखकर काँप उठा। उसे ज्ञात हो गया कि यह कोई साधारण देव नहीं, स्वयं संहार के स्वामी शिव हैं। उसने अपने अस्त्र चलाए, किंतु शिव की एक तीव्र दृष्टि से वे सब भस्म हो गए। यह वही क्षण था जब संसार ने नागेश्वर के रूप में शिव के प्रचंड तेज का अनुभव किया।
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दारुक का विनाश
पुरातन काल में असुर दारुक ने शिवभक्तों पर अत्याचार की सीमा लांघ दी थी। उसकी क्रूरता से त्रस्त होकर जब भक्तों ने भगवान शिव से प्रार्थना की, तब महादेव ने अपने रौद्र रूप में प्रकट होकर दारुक को चेताया, “हे दुष्ट! तूने धर्म का मार्ग छोड़ कर अनीति का साथ लिया है। अब तेरा विनाश निश्चित है।” दारुक ने प्राणों की भीख माँगी, परंतु वह क्षमा किसी सच्चे पश्चाताप से नहीं, बल्कि मृत्यु के भय से थी। शिव ने त्रिशूल चलाया और उसी क्षण दारुक का अंत हो गया।
दारुक की पत्नी नागिनी, जो नागवंश से थी, ने यह दृश्य देखा और अपने पापों को स्वीकारते हुए शिव से क्षमा याचना की। उसकी विनम्रता और पश्चाताप से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उसे आशीर्वाद दिया यदि वह भविष्य में सद्मार्ग पर चलेगी, तो उसे नागलोक की रक्षा का दायित्व प्राप्त होगा। तभी से नागेश्वर ज्योतिर्लिंग में भगवान शिव के साथ नागों की भी पूजा होती है। यह कथा हमें बताती है कि विनाश के पश्चात भी यदि कोई सच्चे हृदय से भक्ति और पश्चाताप करे, तो शिव उसे स्वीकार कर लेते हैं।
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शिव की प्रतिज्ञा
भगवान शिव ने उस पवित्र स्थल पर दिव्य वाणी में घोषणा की, “यह वही भूमि है जहाँ मैंने स्वयं अवतार लिया है। जो भी श्रद्धालु सच्चे हृदय से यहां मेरी आराधना करेगा, उसे हर प्रकार के बंधनों से मुक्ति प्राप्त होगी चाहे वह सांसारिक हो या आत्मिक।” जैसे ही यह वचन दिए गए, सुप्रिया सहित सभी कैदियों को स्वतः ही बंधनों से मुक्ति मिल गई।
उन सबने मिलकर उसी स्थान पर भगवान शिव के प्रतीक रूप में एक शिवलिंग की स्थापना की। कालांतर में यही स्थान “नागेश्वर ज्योतिर्लिंग” के नाम से विख्यात हुआ। शिव ने आगे कहा, “जब कभी कोई मेरा भक्त संकट में होगा, जब अधर्म बढ़ेगा, जब कोई मुझे पुकारेगा, तब मैं नागों के अधिपति ‘नागेश्वर’ रूप में अवश्य प्रकट होऊँगा और अपने भक्त की रक्षा करूंगा।”
यह कथा न केवल शिव की कृपा को दर्शाती है, बल्कि यह भी बताती है कि उनकी उपासना से हर प्रकार के संकट से उबरना संभव है। नागेश्वर ज्योतिर्लिंग आज भी उसी दिव्यता और श्रद्धा का प्रतीक है।
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समुद्र के किनारे वह ज्योतिर्लिंग आज भी बोलता है
हमें यही सिखाती है कि जब संकट गहराता है, तब ईश्वर का सबसे तेजस्वी रूप प्रकट होता है। शिव का नागेश्वर स्वरूप केवल रक्षक नहीं, न्याय और सत्य का जीवंत प्रतीक है। समुद्र की लहरों के बीच आज भी वह ज्योतिर्लिंग खड़ा है, जैसे कह रहा हो, “डर मत, मैं हूँ तेरे साथ।”
निष्कर्ष
हे नागेश्वर, आप केवल नागों के अधिपति नहीं, आप हमारी आत्मा के रक्षक हैं। आप वह शक्ति हैं जो राक्षसी बल के आगे भी सिर नहीं झुकाते, बल्कि अपने भक्तों की रक्षा के लिए स्वयं प्रकट हो जाते हैं। आपके रूप में न कोई डर है, न ही कोई छल, बस शुद्ध शक्ति और करुणा है।
जैसे आपने सुप्रिया की पुकार सुनी, वैसे ही हमारी प्रार्थना भी सुनिए। जब मन भयभीत हो, जब आत्मा बंधनों में हो, जब संसार मोह में उलझा हो, तब आप ही वह ज्योति हैं जो भीतर का अंधकार मिटा सकती है। हमें शक्ति दीजिए कि हम आपके नाम में स्थिर रहें, और आपकी भक्ति में दृढ़ हो जाएँ।
हर हर महादेव। जय नागेश्वर।