Rameshwaram Jyotirlinga Katha: 5 Mystery जब श्रीराम ने रावण वध से पहले की शिव पूजा

Rameshwaram Jyotirlinga Katha कोई साधारण धार्मिक कथा नहीं, यह उस क्षण की गवाही है जब एक राजा, जो स्वयं भगवान का रूप माना जाता है, शिव के चरणों में झुक गया। यह वह स्थल है जहाँ मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने रावण जैसे बलशाली राक्षस से युद्ध करने से पहले भगवान शंकर का स्मरण किया और उनकी आराधना की। रामेश्वरम की यह रेत, यह लहरें, और यहाँ की हवाएँ आज भी उस दिव्य क्षण की साक्षी हैं।

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वियोग में व्याकुल राम और धर्म की गूंज

माता सीता के अपहरण के बाद भगवान श्रीराम का जीवन केवल एक उद्देश्य में समर्पित हो गया सीता माता की खोज और अधर्म पर धर्म की विजय। उनके साथ लक्ष्मण और वानर सेना भी इस धर्मयात्रा में सहभागी बने। जैसे-जैसे यात्रा दक्षिण की ओर बढ़ी, मार्ग में विशाल समुद्र बाधा बनकर खड़ा हो गया। यही वह पावन स्थल था जहाँ भगवान राम ने पहली बार सच्चे समर्पण के साथ भगवान शिव का आह्वान किया। उन्होंने गहरे भाव से कहा, “लंका में अधर्म ने डेरा डाला है, परंतु यदि विजय पानी है तो वह केवल शिव की कृपा से ही धर्म कहलाएगी।”

राम का यह भाव केवल एक योद्धा की पुकार नहीं थी, बल्कि धर्म की मर्यादा और समर्पण की गहराई को दर्शाने वाली एक पवित्र वाणी थी। समुद्र किनारे खड़े होकर शिव स्मरण करने वाला यह दृश्य न केवल आध्यात्मिक चेतना का प्रतीक बना, बल्कि यह भी प्रमाणित करता है कि धर्म का मार्ग शिव की कृपा और आशीर्वाद से ही पूर्ण होता है। राम का चरित्र इसी धार्मिक आस्था और अनुशासन का जीता-जागता प्रतीक है।

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भक्ति और समर्पण का पहला संकल्प

प्राचीन काल में जब धर्म की रक्षा हेतु राम ने युद्ध का संकल्प लिया, उससे पहले उन्होंने भक्ति और समर्पण की गहरी नींव रखी। उन्होंने एक शांत और पवित्र स्थान का चयन किया जहाँ वे प्रभु शिव की आराधना कर सकें। रेत से एक दिव्य शिवलिंग की रचना कर, राम वहीं ध्यानस्थ हो गए। उनके नेत्र तो बंद थे, किंतु अंतर्मन शिवमय हो चुका था। प्रत्येक श्वास के साथ वह मंत्रों की गूंज में डूबते जा रहे थे।

राम ने दृढ़ निश्चय किया कि जब तक उन्हें शिव की पूर्ण कृपा प्राप्त नहीं होती, वे किसी प्रकार का युद्ध आरंभ नहीं करेंगे। यह केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं था, बल्कि एक दिव्य समर्पण का प्रतीक था जहाँ आत्मा और परमात्मा के बीच का संवाद मौन में भी मुखर था।

राम की इस तपस्या में केवल साधना नहीं, बल्कि वह गहराई थी जो किसी भी वीर पुरुष को आध्यात्मिक रूप से शक्तिशाली बनाती है। उनके इस संकल्प ने भविष्य की विजय का मार्ग प्रशस्त किया क्योंकि जो पहले प्रभु के चरणों में झुकता है, वही सच्चे अर्थों में विजयी होता है।

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हनुमान का कैलाश जाना

भगवान श्रीराम ने अपने परम भक्त हनुमान जी से स्नेहपूर्वक कहा, “हे वायुपुत्र! तुम कैलाश पर्वत जाकर भगवान शिव से निवेदन करो कि वे इस पूजन के लिए अपना दिव्य स्वरूप भेजें।” श्रीराम की आज्ञा पाकर हनुमान जी तुरंत आकाश मार्ग से उड़ चले। वे पर्वतों को पार करते हुए, हिम से ढकी चोटियों को लांघते हुए सीधा कैलाश पर्वत पहुँचे।

कैलाश की शांत और दिव्य भूमि पर पहुँचकर हनुमान जी ने भक्तिभाव से भगवान शंकर को साष्टांग प्रणाम किया और श्रीराम का संदेश निवेदनपूर्वक प्रस्तुत किया। उन्होंने भगवान शिव से श्रीराम की भक्ति और उनके संकल्प की बात साझा की। भगवान शिव उस निष्कलंक भक्ति को सुनकर प्रसन्न हो उठे। वे मंद मुस्कराए और बोले, “राम केवल मेरे आराध्य नहीं हैं, वे मेरे अंतरात्मा के अत्यंत प्रिय हैं। उनका कार्य मेरा ही कार्य है। यह शिवलिंग तुम श्रीराम के पास ले जाओ और उनके पूजन संकल्प को सफल बनाओ।”

हनुमान जी भगवान शिव की कृपा लेकर पुनः प्रभु श्रीराम के सेवा-पथ पर लौट चले।

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समय की परीक्षा – जब शिवलिंग पहुँचने में विलंब हुआ

हनुमान शिवलिंग लेकर वापस लौटे, लेकिन समुद्र के समीप तब तक शुभ मुहूर्त आरंभ हो चुका था। पूजा विलंब से न हो, इसलिए राम ने पहले से बनाए हुए रेत के शिवलिंग की पूजा प्रारंभ कर दी। वे पूरे श्रद्धा और विधि से पूजन में लगे रहे। जब हनुमान लौटे और यह दृश्य देखा, तो उनका मन थोड़ा खिन्न हो गया।

राम का स्नेह और हनुमान की भक्ति की पहचान

हनुमान की उदासी को देखकर राम मुस्कराए और बोले “हे हनुमान! तुम समय से नहीं, भक्ति से आए हो। तुम्हारा लाया हुआ शिवलिंग उतना ही पूजनीय है जितना यह। मेरे द्वारा रचा गया यह शिवलिंग मेरी भक्ति का प्रतीक है, और तुम्हारा लाया हुआ शिवलिंग तुम्हारी भक्ति की ऊँचाई का। हम दोनों की श्रद्धा मिलकर इसे पवित्र बनाती है।”

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द्विगुणित प्रतिष्ठा

तब राम ने दोनों शिवलिंगों की स्थापना की। एक स्वयं रेत से बनाए गए ‘राम लिंगम’ के रूप में पूजित हुआ, और दूसरा हनुमान द्वारा लाया गया ‘विशेष लिंग’ भी वहीं प्रतिष्ठित हुआ। यह परंपरा आज तक चली आ रही है, जहाँ दोनों शिवलिंगों की पूजा एक ही स्थल पर होती है। यह वही स्थान बना रामेश्वर, यानि “राम द्वारा पूजित ईश्वर”।

शिव का आशीर्वाद

पूजा के अंतिम क्षणों में आकाश में अद्भुत प्रकाश फैला और वातावरण शिवमय हो गया। मान्यता है कि उसी क्षण शिव ने राम को वरदान दिया “हे राम, रावण चाहे जितना बलशाली क्यों न हो, जब तुम्हारे साथ मेरी कृपा है, तो अधर्म का विनाश निश्चित है।”

राम ने आभार स्वरूप एक बार फिर झुककर प्रणाम किया और उस भूमि को पवित्र मान लिया। उन्होंने कहा “जिस भूमि पर शिव की उपस्थिति मिली, वह मेरा युद्ध स्थल नहीं, तीर्थ है।”

लंका विजय और राम की वापसी

रावण का वध हुआ। धर्म की स्थापना हुई। लेकिन राम ने इसे केवल विजय नहीं माना, उन्होंने इसे शिव की भक्ति से प्राप्त आशीर्वाद कहा। लंका से लौटते समय वे पुनः रामेश्वरम आए और वहीं रेत के शिवलिंग की पूजा फिर से की। इस बार उनकी आंखों में संतोष था, पर वाणी में वही विनम्रता “हे प्रभो, सब आपकी कृपा है।”

Rameshwaram Jyotirlinga Katha का सार

यह Rameshwaram Jyotirlinga Katha हमें सिखाती है कि:

  • जब राम जैसे प्रभु भी शिव के सामने झुक सकते हैं, तो हम क्यों नहीं?
  • भक्ति का मूल्य समय नहीं, भावना तय करती है
  • एक राजा जब शिव की कृपा को ही अपना बल मानता है, तो वह मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाता है
  • और एक सेवक, हनुमान जब समर्पण में पूर्ण होता है, तो उसका लाया हुआ शिवलिंग भी स्वयं महादेव के समान पूजनीय हो जाता है

निष्कर्ष

हे रामेश्वर! आप उस भाव के प्रतीक हैं जहाँ ईश्वर भी दूसरे ईश्वर के चरणों में शीश नवाते हैं। आप वह क्षण हैं जहाँ अहंकार शून्य होता है और केवल भक्ति शेष रह जाती है।

हे शिव! आपने राम को आशीर्वाद दिया, रावण का संहार होने दिया और एक उदाहरण रखा कि धर्म केवल युद्ध से नहीं, श्रद्धा से जीता जाता है। हम भी आपके चरणों में यही कामना करते हैं, जैसे राम ने आपको रेत में बसाया, वैसे ही आप हमारे हृदय में बस जाएं। जैसे हनुमान ने आपको लाने में संकोच नहीं किया, वैसे ही हम भी जीवन की कठिनाइयों में आपके लिए प्रयासरत रहें।

हर हर महादेव | जय श्रीराम | जय रामेश्वरम्


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