Omkareshwar Jyotirlinga Katha: 5 Mystery जब भगवान शिव ने स्वयं को दो भागों में बाँटा

Omkareshwar Jyotirlinga Katha एक ऐसी दिव्य यात्रा है जो हमें नर्मदा नदी के शांत किनारे से उठाकर भगवान शिव की गहराई तक ले जाती है। मध्यप्रदेश के खंडवा जिले में स्थित ओंकारेश्वर, केवल एक ज्योतिर्लिंग नहीं, वह स्थल है जहाँ श्रद्धा, तप, और ईश्वरीय करुणा का साक्षात रूप शिव के ओंकार में समाया हुआ है। इस कथा की जड़ें युगों से भी पुरानी हैं जब ऋषियों की साधना और राक्षसों की अत्याचार कथा बन गई थी, और बीच में खड़ा था समर्पण, जो भगवान को पृथ्वी पर उतरने को विवश कर गया।

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धरती पर छाया अधर्म

एक समय ऐसा आया जब धरती पर अधर्म की परछाई गहराने लगी। राक्षसों ने अहंकारी राजाओं का साथ पाकर देवताओं, संतों और तपस्वियों पर अत्याचार शुरू कर दिए। वे यज्ञों को नष्ट करने लगे, साधना में लीन ऋषियों को बाधित किया जाने लगा, और सम्पूर्ण वातावरण में भय, अन्याय और असुरता का साम्राज्य फैलने लगा। यह दृश्य देख स्वयं पृथ्वी माता व्याकुल हो उठीं और उन्होंने ब्रह्मा, विष्णु तथा अंत में भगवान शिव की शरण ली।

देवताओं की पुकार सुनकर महादेव ने उन्हें आश्वासन दिया “जहां मेरी भक्ति सच्चे हृदय से की जाएगी, वहां मैं साक्षात प्रकट होकर धर्म की रक्षा करूंगा।” इस दिव्य वाक्य ने एक नई आशा की किरण जगाई।

तब देवताओं ने यह निश्चय किया कि पृथ्वी पर एक ऐसा पावन स्थान स्थापित किया जाए, जहां शिव की उपासना निरंतर होती रहे और वह स्थान अधर्म के नाश का प्रतीक बने। यहीं से Omkareshwar Jyotirlinga की पवित्र कथा का प्रारंभ हुआ, जो आज भी धर्म, भक्ति और शिव-संरक्षण की अमर गाथा बनकर श्रद्धालुओं के हृदय में जीवित है।

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मंदार पर्वत और तपस्वियों की पुकार

नर्मदा नदी के शांत किनारे पर स्थित मंदार पर्वत एक दिव्य तपोभूमि है, जहाँ प्राचीन काल में अनेक ऋषियों ने शिव को प्रसन्न करने हेतु कठोर साधना की। न उन्हें संसारिक सुखों की चाह थी, न किसी चमत्कार की अपेक्षा उनका एकमात्र उद्देश्य था शिव की ऊर्जा को धरती पर आमंत्रित करना।

वर्षों तक उस पर्वत की गुफाओं और जंगलों में जप, ध्यान और यज्ञ की अग्नि जलती रही। ऋषियों के हृदय में सिर्फ एक मंत्र की ध्वनि गूंजती रही “ॐ नमः शिवाय”। यह उच्चारण इतना गूंजता कि समूचा पर्वत उस कंपन में समा गया। मान्यता है कि उस ध्वनि की शक्ति से पर्वत का आकार भी “ॐ” की आकृति जैसा प्रतीत होने लगा।

यही कारण है कि इस स्थान को बाद में “ओंकार पर्वत” कहा जाने लगा। मंदार पर्वत आज भी उसी तप, भक्ति और शिव-स्मरण की गूंज से जुड़ा हुआ है। यहाँ का वातावरण भक्तों को आध्यात्मिक चेतना और शांति प्रदान करता है, मानो स्वयं भोलेनाथ इस पर्वत पर विराजमान हों।

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भगवान शिव का प्रकट होना

पुरातन काल में जब ऋषियों और भक्तों की तपस्या अपने चरम पर पहुँची, तो उनकी निःस्वार्थ भक्ति से भगवान शिव अति प्रसन्न हुए। वे भक्तों की श्रद्धा से इतने भावविभोर हो गए कि उन्होंने स्वयं प्रकट होकर कहा “हे तपस्वियों! तुम्हारे समर्पण ने मुझे प्रसन्न किया है, अब मैं इस भूमि पर स्वयं एक दिव्य रूप में निवास करूँगा।”

भगवान शिव ने तब अपने तेज को दो रूपों में प्रकट किया। पहला रूप “ओंकारेश्वर” था, जो ओंकार पर्वत पर प्रकट हुआ, और दूसरा “ममलेश्वर”, जो नर्मदा नदी के पार प्रतिष्ठित हुआ। ये दोनों रूप मिलकर एक अद्वितीय ज्योतिर्लिंग स्वरूप की अनुभूति कराते हैं, जिसे आज ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग के रूप में पूजा जाता है।

यह कथा न केवल शिव की कृपा का प्रतीक है, बल्कि यह दर्शाती है कि सच्ची भक्ति से भगवान स्वयं भक्तों के पास आते हैं। ओंकारेश्वर आज भी उसी दिव्यता और भक्ति के भाव से पूजित है, जहाँ शिवजी का ओंकार और ममलेश्वर रूप एक ही चेतना का प्रतीक माने जाते हैं।

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राजा मित्रसेन और राक्षसों की चुनौती

ओंकार पर्वत के समीप स्थित “अमरकंटक” राज्य के प्रतापी शासक थे राजा मित्रसेन। वे अत्यंत धर्मनिष्ठ और भगवान शिव के परम भक्त थे। उनके राज्य में शिव पूजा, यज्ञ, दान और सेवा को जीवन का अनिवार्य अंग बना दिया गया था। उनकी भक्ति और धार्मिक व्यवस्थाएँ चारों ओर प्रसिद्ध हो गईं, जिससे आसपास के राक्षस क्रोधित हो उठे।

राक्षसों ने अमरकंटक पर आक्रमण की योजना बनाई। परंतु युद्ध की बजाय, राजा मित्रसेन ने ईश्वर की शरण में जाने का निश्चय किया। उन्होंने राज्य के मध्य भाग में एक भव्य शिवलिंग की स्थापना की और अपने प्राणों की आहुति तक शिव आराधना में लग गए।

जैसे ही राक्षस नगर की सीमा में पहुँचे और मंदिर की दिशा में बढ़े आकाश से दिव्य प्रकाश फूटा, नर्मदा की धाराएँ तेज़ हो उठीं, और अद्भुत चमत्कार हुआ। भगवान शिव स्वयम् प्रकट हुए, और उनकी ज्वलंत उपस्थिति मात्र से राक्षस भयभीत होकर पलायन कर गए।

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ओंकार रूप का तेज और रक्षा

भगवान शिव ने न केवल राक्षसों का संहार किया, बल्कि अपने “ॐ” के नाद से ही उन्हें भस्म कर दिया। ऐसा कहा जाता है कि वह “ॐ” का उच्चारण इतना शक्तिशाली था कि केवल उसकी ध्वनि से धरती कांप गई और आकाश नतमस्तक हो गया। यह “ओंकार नाद” ही आज ओंकारेश्वर की आत्मा है।

इसके बाद शिव ने मित्रसेन को आशीर्वाद दिया और कहा “तुम्हारा राज्य धर्म का केंद्र बनेगा। यहाँ कोई अधर्म नहीं टिक पाएगा। और मैं स्वयं यहाँ सदा विराजमान रहूँगा ओंकार रूप में।”

ओंकारेश्वर नाम का रहस्य

“ओंकार” का अर्थ केवल ध्वनि नहीं, वह ब्रह्म का बीज है सृष्टि की पहली लहर, पहला नाद। शिव ने जब “ॐ” के रूप में स्वयं को प्रकट किया, तभी यह स्थल “ओंकारेश्वर” कहलाया। यह वह स्थान है जहाँ भक्ति, शक्ति और ब्रह्म एक हो जाते हैं। शिव यहाँ केवल पूजित नहीं होते वे अनुभव किए जाते हैं।

नर्मदा की गवाही

नर्मदा, जिसे स्वयं शिव की बेटी कहा जाता है, ओंकारेश्वर की साक्षी बनी। उसने अपने तटों पर यह सब होते देखा और अपनी धाराओं में उस “ॐ” की प्रतिध्वनि को आज भी बहने दिया। आज भी नर्मदा का प्रवाह जब ओंकारेश्वर के आसपास घूमता है, तो लगता है जैसे वह शिव को हर दिन नमन कर रही हो।

आज की ओंकारेश्वर कथा

Omkareshwar Jyotirlinga Katha आज भी हर शिवभक्त की आत्मा में जीवित है। यहाँ जो भक्त जाता है, उसे केवल मंदिर नहीं दिखता, बल्कि वह पर्वत, वह नर्मदा, वह “ॐ” की ध्वनि सब उसकी आत्मा में उतर जाते हैं। यहाँ शिव केवल मूर्ति में नहीं, हर पत्थर, हर जलकण और हर श्वास में जीवित हैं।

निष्कर्ष

हे ओंकारेश्वर, आप केवल एक ज्योतिर्लिंग नहीं, आप वह नाद हैं जिससे सृष्टि की शुरुआत हुई। आपकी ओंकार गूंज आज भी हमारे भीतर के अंधकार को दूर करती है। जैसे आपने मित्रसेन और ऋषियों की रक्षा की, वैसे ही आज भी हमारी श्रद्धा को आपका सहारा चाहिए। जब हम “ॐ नमः शिवाय” का जाप करते हैं, तो हमें लगता है कि आप सुन रहे हैं।

हमारी प्रार्थना शब्दों से नहीं, हृदय से निकले और वो सीधा आपकी ओंकार में विलीन हो जाए, यही हमारी सबसे बड़ी सिद्धि होगी।

हर हर महादेव। जय ओंकारेश्वर।


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